मोक्षधाम 1
(मिटा सके श्मशान क्याॽ)
समर्पणः-
इस धरा धाम के संरक्षण में,
जिन्होंने अपना शास्वत जीवन-
हर पल बिताया, उन्ही सात्विक-
मुमुक्षुऔं के चरण-कमलों में सप्रेम।
वेदराम प्रजापति
मनमस्त
मो.9981284867
दो शब्दः-
नियति के सिद्धांतों की अटल परंपरा में, जीवन की क्या परिभाषा होगी तथा जीवन का घनत्व कितना क्या होगाॽ इन्हीं संवेगों और संवादों को, इस काव्य संकलन-मोक्षधाम (मिटा सके श्मशान क्याॽ)में दर्शाने का प्रयास किया गया है, जो अपके आशीर्वाद की प्रतीक्षा में आपके कर कमलों मे-सादर।
वेदराम प्रजापति
मनमस्त
गुप्ता पुरा डबरा
ग्वालियर म.प्र
Ø दोहे
जप-तप तेरे र्व्यथ हैं, मनवा करौ विचार।
जीवन-सुख जो चाहता, तो श्मशान निहार।।
जन्म लिया जिसने जहाँ, निश्चय मृत्यु विचार।
फिर भटकावा काए का, जा श्मशान निहार।।
र्व्यथ रहा चिंतन-मनन, जीवन कीना खार।
मिटा सको श्मशान को, इस पर करो विचार।।
कठिन नही है यह सभी, युग इतिहास निहार।
मिटा गए श्मशान को, जिनने किया विचार।।
तप-तापन पावत नही, जोग, जग्य, जप, जाग।
नहीं कहीं श्मशान-सी, भूमी त्रिभुवन नाप।।
जीव कराहत जग मिले, दुःख का नहिं अवशान।
शान्त-पाठ यहाँ सब करैं, तीर्थ बड़ा श्मशान।।
ओम शान्ति का पाठ तहाँ देही, भ्रम मिटजाय।
अगमन-निगमन सब मिटैं, जीव मोक्ष को जाय।।
Ø मुक्ति धाम
मुक्ति धाम-सा धाम न अन्य कोई,
जहाँ क्षार हुए, मनचाव सभी।
सब, बन्ध कटै, भव बंधन के,
जहाँ शान्त हुए तन ताप सभी।
विरथाँ भटका, भब-बीथिन में,
यहाँ आय मिटे, भटकाव सभी।
मनमस्त रहा शिव धाम यहीं,
जहाँ जीव लहें, विश्राम सभी।।1।।
कई योनि के भोगन भोग चुका,
शुचि योग पा मानव जनम लिया।
उलटा होय, माँ उदरान पला,
प्रभु को, कर जोरित नाम लिया।
ऐहि लोक में आय, भुलाया उसे,
जेहि साधन-धाम का योग दिया।
जग-जन्म का लाभ उसीने लिया,
जिसने श्मशान सुधार लिया।।2।।
केहि पै इतरावत, ओ! मनवा,
घुरबा, उटबा, हथियान चढ़ा।
फिर भी, सुख से,यहाँ जी न सका,
निशि-दिन विषयान के द्वार पड़ा।
रटना प्रभु नाम को भूल गया,
भरपूर भरा, पापान घड़ा।
श्मशान को याद किया क्या कभीॽ
जेहिधाम सभी कोई जाना पड़ा।।3।।
जग में जबसे यह जन्म लिया,
भटकान की राहों से नाँपी मही।
धन-धाम के तीरथ देखे सभी,
दुःख का अवशान न पाया कही।
तपि, योगिक, संत, महंत, जपी,
उपदेशों की राह कभी ना गही।
मन को विश्रांति मिली तो यही,
श्मशान ही पावन धाम सही।।4।।
सत सत्य सनातन रेख रही,
सतमारग, जो जन, जाग जिया।
हरिनाम के जाप विना जग में,
किसने भव सागर पार किया।
मनमस्त रहा प्रभु, हर युग में,
जिसने उपकार का काम किया।
धन्-धन्य हुआ वह जीवन में,
जिसने श्मशान सुधार लिया।।5।।
श्मशान-सा धाम न और कहीं,
जहाँ मोक्ष भए, मन चाव सभी।
मन क्लाँत मिटी, विकलाँत मिटी,
जहाँ शान्त भए, त्रय ताप सभी।
शिव का, शिव धाम यही मनवा।
क्षणमात्र को पाँए वैराग्य सभी,
जन पाँए जहाँ मनमस्त मनहि,
मिल जाप करें, ओम-शान्ति सभी।।6।।
संसार असार में, सार नहीं,
फिर भी घर-वार रहा अटका।
अपना-सपना दिन-रात कहा,
झूठे-भटकाव रहा भटका।
बल-वैभव के गलियारन में,
मनचाह, अचाहत में मटका।
छल-क्षद्म की चालैं, हमेशा चलीं,
मनमस्त हो नाच, नचा नटका।।7।।
कब, कौन घड़ी में, विछोह मिले,
अवशान का ध्यान, कभी क्या-कियाॽ
चिर सत्य को, सत्य न माना कभी,
घन-अँध-निशा में, हमेशाँ जिया।
मन मोदक, मोद में चावे सदाँ,
विषयान का जाम, सदाँ ही पिया।
इनमें उलझा मनमस्त रहा,
श्मशान का ध्यान कभी ना कियाॽ8।।
हरिनाम के, नाम से भागे सदाँ,
यम के बंधन नही, भाग सकै।
अंजान बना, अनजाना रहा,
विषयान के भोगत, भोग पकै।
श्मशान सुधारा नहीं फिर भी,
नित ऊल-जलूल के, बोल बके।
मनमस्त विचार कभी न किया,
प्रभु के पद-कंज, कभी क्या तकेॽ9।।
सब छूटे यहीं, संग कौड़ी नहीं,
घर वारिन को, बहु-भार बना।
जल्दी कर लो, काहे देर करो,
दुल्हा खटलाँन पै, आज तना।
तज मोह किया, निःवस्त्र तुझे,
लकड़ी कण्डान से, ढाँका घना।
दई आग तुझे, मनमस्त अहा!
क्षण में सब ही, शब राख बना।।10।।
ऐहि भाँति से तेरी, करी क्रिया,
चहुँओर से घेर, जलाया गया।
तन के सब जोड़, चटाख खुले,
फटा-फट्ट तेरा व्रम्हाण्ड भया।
चमड़ी जल गई, चर्वी भी जली,
जल छार सभी हड्डीन भया।
मनमस्त न राख भी छोड़ी तेरी,
नदिया द्रुत-धार बहाया गया।।11।।
कुछ सोचो जरा, क्या देखे खड़ा,
शव का यह हाल, हमेशाँ हुआ।
अब भी मनुआँ कुछ सोचो जरा,
अब तक जो मजारा, हुआ सो हुआ।
नहिं सोचा तहीं, यह हाल हुआ,
जलने का नजारा, यहाँ जो हुआ।
मोक्ष धाम की सीख, यही है सदाँ,
मनमस्त यहाँ कुछ होश हुआ।।12।।
मोक्षधाम से सीख अरे पगले,
प्रभु का यह खेल, क्या जाना कभी।
गिरके उठना जग रीत रही,
इसका इतिहास पढ़ा है कभी।
हरिधाम यही, शिव धाम यही,
एहि धाम जो आय, सो पावे सभी।
जग के भटकाव मिटाले जरा,
मनमस्त ठिकाना, न और कही।।13।।
सब सोचें खड़े, चलना है सम्भल,
जग को उपदेश तेरा जरना।
मन सोच चलो, पग रोप चलो,
बनना न कभी, युग के हिरना।
इतराओ नहीं, इठलाओ नही,
ऐहि लोक से होगा तेरा तरना।
गिरजा-गिरजा, गिरिजा पति पग,
मनमस्त यहाँ, आना फिर-ना।।14।।
अब भी संभलो, मेरे बन्दे,
यह मरघट का, तमाशा है।
कोई काम नही आए,
जिनकी, तूँ करत आशा है।
जिन बल दौड़ता रहता,
वे ही पग फिसल गए तेरे-
प्रभू को याद करले रे,
जब तक चलत स्वाँसा है।।15।।
ऐसे गिरत-उठते ही,
समय बरबाद कर डाला।
बदन सब कँप रहा ऐसे,
पीपल पात ज्यौं लाला।
आँखें काम नहीं करतीं,
दाँतो का अलग क्रंदन-
अभी-भी चेतजा प्यारे,
पड़ेगा मृत्यु से पाला।।16।।
चंदन, धूप, तिल देकर,
जलाता आज है जिसको।
वही तेरा तमासा हो ,
इक दिन, याद कर उसको।
उठाया आज है जिनने,
वे कब तक काम आएँगे-
खुद में संभल जा हजरत,
कहानी मत समझ इसको।।17।।
इधर गिरना यही बंदे,
अगर उस तरफ गिर जाता।
कहानी और कुछ होती,
उसको क्या बता पाता।
ये नाटक मंच है दुनियाँ,
तूँ भी पात्र इक उसका-
खुदको समझ जा अब भी,
और को क्यों समझाता।।18।।
यह जरघट भी समझ प्यारे,
जिसे तूँ कह रहा मरघट।
अभी भी समझ नहीं पाया,
तेरा घर रहा, मरघट।
तमासा हो रहा जो कुछ,
यही तो राम लीला है-
यूँ ही जलेगा इक दिन,
करले याद कुछ मरघट।।19।।
दफ़न होना रहा निश्चित,
आज या कल, बस अंतर।
आहुतिं दो भलाँ कितनी,
चलेगा कोई नही मंतर।
न खाया जिंदे में इतना,
जितना घ्रत जला डाला-
समझ से काम कुछ लेलो,
काहे पिर रहे जंतुर।।20।।
जिसे तूँ आहुती देता,
वह तो वहाँ नही प्यारे।
अभी तक नही समझ पाए,
समझ ले अभी, मतवारे।
ये पिंजरा जल रहा धूँ-धूँ,
सुआ तो उड़ गया कबका-
किसे मंतर सुनाता है,
नेति कह वेद भी हारे।।21।।
कविता कौनकी लिखता,
खुद में तूँ रहा कविता।
आँखें खोलकर देखो,
तो सारा जग यही कविता।
नही कुछ और है जग में,
तेरा ही तमाशा है-
जिस दिन समझ जाएगा,
खुद में होयगा सविता।।22।।
तमाशा छोड़ कुछ कर लो,
तमाशा खूब कर डाला।
लेखा खुद करो अपना,
पीला किया या काला।
अपने को ही समझ केवल,
और को देख मत बन्दे।
जगत की पी किती हाला,
कितना नाच कर डाला।।23।।
तिलांजलि और श्रद्धांजलि,
यहाँ दी खड़े हो सबने।
ब्रह्म जी मंत्र बोलत थे,
आहुति स्वाहा दी सबने।
मैंने भी और सबने,
विनत साष्टाँग हो करके-
बना मनमस्त इतना था,
उठाया था मुझे सबने।।24।।
सहन कर भी नही पाये,
तुम्हारे तेज की लाली।
कभी आजाद नहि देखे,
तुम्हारे प्रेम के माली।
अजाना नही रहा श्रीमन,
यहाँ मनमस्त भी तुमसे।
अंतिम विदा वेला में,
सीख कुछ मुझे दे डाली।।25।।
होना था यही, होना जो हुआ,
संबंध निभातेहि जाना हुआ।
त्रिवेणी में अस्थी विसर्जित करी,
संबंध निभाना भी, एही हुआ।
आगे के सभी कतर्व्य निभे,
हंसते-हंसते यह सब ही हुआ।
मनमस्त यही है प्रथा जग की,
संबंध का अर्थ यही तो हुआ।।26।।
तुम्हारा इस तरह जाना,
सहन करभी न पाएँगे।
तुम्हारी याद के वो पल,
कहो कैसे भुलाएँगे।
यहाँ परिवार सारा ही,
तुम्हारी याद में डूबा-
तुम्हारे नेह के सागर,
कहो अब कहाँ पाएँगे।।27।।
जाना बेटियाँ बेटा,
कभी अंतर नहीं माना।
दिया था प्यार गोदी का,
सुनाकर लोरियाँ गाना।
किसे अब माँ कहै मम्मी,
सूना घर तुम्हारे विन-
बताओ अब कहाँ जीलें,
तुम्ही को घर सही जाना।।28।।
नेह के फूल बरसाना,
भुलाने सभी के गम को।
जहाँ भी हो रहो सुख से,
भूलना है नही हम को।
हमें विश्वास है पूरा,
आशिषें वही से दोगी-
करो बरसात खुशियों की,
अपना ही बना सबको।।29।।
अब सोच, ओ! प्राणी,रहा क्या यहाँ,
जिसपै इतना जो, गुमान किया।
कुछ ही दिन में सब भूले तुझे,
झगड़े धन पै नहिं नाम लिया।
ऐहि चाल, चलै संसार यहां,
तूँने काहे पै, इतना जाम पिया।
फिर भी, मनमस्त, न चेता अभी,
हरिनाम विना, काहे व्यर्थ जिया।।30।।
भव सागर, झूँठे से बंधन में,
भटका अब तक, अंजाना बना।
नहिं कोई किसीका, यहाँ पै रहा,
फिर मोह के जाल, क्यों भूला मना।
प्रभु को रटले, सब छोड़ यहीं.
करले संबंध, घना से घना।
करले, मनमस्त सुधार अभी,
नहिं जाएगा, यौं ही तना का तना।।31।।
नवमांस पड़ा गर्भस्थ रहा,
कई स्वप्न लिए, प्रभु नाम रटा।
जिसने उदरस्थ खिलाया तुझे,
मन में, मन भाई, अनूठी छटा।
जिस रूप औ रंग पै खोया रहा,
नहिं जान सका, भव-क्षीर-मठा।
अनजान, विचार कभी क्या कियाॽ
मनमस्त, ये आयु घटा कि बढ़ा।।32।।